Monday, September 26, 2016

फेमिनिज़्म या शॉवीनिज़्म: भारत में सब बकवास।

अभी कुछ दिन पहले की बात है मैं सुपरमार्केट से निकल के अपने इंस्टिट्यूट जा रहा था। मेरे आगे आगे मेरी एक स्टूडेंट चल रहीं थीं इतनी दूरी पर कि उन्हें पता नहीं था कि मैं उनके पीछे हूँ। दूसरों को भी देख के ऐसा नहीं लगा होगा कि मैं उनसे परिचित हूँ। एक बार मैंने सोचा कि जा के उनको हेल्लो बोलूं, फिर सोचा दौड़ने का क्या फायदा सुबह सुबह, तो मैं उनके पीछे पीछे उतनी ही दूरी पर चलता रहा। वो स्टूडेंट किसी अजीब सी ड्रेस में भी नहीं थीं और न ही उनके चलने के ढंग में कुछ ख़ास था। लेकिन मैं पूरी तरह आश्चर्यचकित था। रास्ते में खड़ा हर आदमी उन्हें ऐसे देख रहा था जैसा वो कोई पिज़्ज़ा हों या कोई खाने की चीज़। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इसकी वजह क्या हो सकती है। फिर मैंने ध्यान दिया कि ये पहली बार था कि मैं किसी लड़की के साथ तो चल रहा था लेकिन देखने वालों के लिए वो अकेली थी। मैंने सोचा पता नहीं इस लड़की का क्या रिएक्शन होगा ऐसी नज़रों पर। लेकिन फिर मैंने देखा कि उनका कोई रिएक्शन नहीं था। वो नज़रें नीचे झुकाए चलतीं रहीं जैसे कुछ हुआ ही न हो। तब उस दिन समझ में आया कि हमारे देश की लड़कियां, महिलाएं कितना कुछ बर्दाश्त करतीं हैं जो अगर न करें तो शायद रोज़ ही फ़साद हों।

जब ऐसी घटनाओं को याद करता हूँ और शहर के लड़कों और पुरुषों को फेमिनिज़्म वगैरह पर मज़ाक करते देखता हूँ तो दया आती है उनपर। बेचारे अमरीकी राजनीति पढ़ कर और अमरीकी सिनेमा देख कर भटक गए हैं। उन्हें पता ही नहीं है उनका देश एक बहुत बड़ा चिड़ियाघर है जहां चारों तरफ़ जानवर ही जानवर हैं। ईश्वर उन्हें सदबुद्धि दे।

  • ऋषिराज

Wednesday, June 8, 2016

दुःख का मूल

तकलीफ में कौन नहीं है? कुछ लोग अपनी तकलीफ को भुलाने या काबू करने की कोशिश करते हैं। मगर कुछ लोग अपनी तकलीफ को हर पल जीते हैं, हर पल अपने हर तकलीफ से भरे पल को याद करते हैं और बस नकारात्मक ढंग से सोचते हैं। वो खुद तो हमेशा अपने दुखों को साथ रखते ही हैं और साथ ही अपने साथ वालों को भी ये याद दिलाते रहते हैं कि ज़िन्दगी क्यों कष्ट से भरी हुई है। ऐसे लोगों के साथ लम्बे समय तक रहने से आपको अवसाद यानि डिप्रेशन हो जाएगा।अगर ज़िन्दगी में सुख चाहिए तो या तो ऐसे लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए या उनकी बातों पर जितना कम ध्यान दिया जाए उतना अच्छा है। जब वो अपने दुखों के ख़ज़ाने को खोलें तो आँखें बंद करके गहरी साँसें लीजिए और अपना ध्यान अपने ऊपर केंद्रित कर लीजिए वर्ना ये लोग आपकी सारी ऊर्जा पी जाएंगे। - ऋषिराज 

Monday, February 22, 2016

भिक्षाम देहि, आरक्षण देहि

भारत में मूर्खता कूट कूट के भरी है और अक्लमंदी भी। लेकिन गणित के हिसाब से मूर्खता की फ़ीसद हमेशा ज़्यादा होती है किसी भी ग्रुप में। और इसीलिए भारत की भयंकर  जनसँख्या के कारण मूर्खता भी भयंकर रूप से व्याप्त है। ये मूर्खता हमेशा से रही है यहाँ लेकिन हाँ, इसे समय समय पर कोई मार्गदर्शक चाहिए। सही मार्गदर्शन में मूर्खता किस हद तक जा सकती है इसका ज्वलंत उदाहरण इस देश में आजकल हर तरफ देखा जा सकता है। और सच पूछिए तो इस तरह की मूर्खता का पढ़े लिखे होने से या नहीं होने से भी कोई ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। पढ़े लिखे मूर्खों में एक एक्स्ट्रा गुण होता है। वो अपने जैसे मूर्खों की कही हुई बातों को दुहराना जानते हैं। उन्हें अपने सारे अधिकारों की भी जानकारी होती है, कर्तव्यों की हो या न हो।


तो आजकल ज़्यादातर भारतीय जो अपने आपको पूर्ण हिन्दू समझते हैं, को अचानक कई चीज़ों का एहसास हो गया है। वो जाग उठे हैं और समझ चुके हैं कि सारे विश्व में जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हुए वो दरअसल हिन्दुओं ने किए हैं। कई हज़ार साल पहले, हिन्दू जब खुद को हिन्दू नहीं कहते थे। कुछ तो मेरे मित्र हैं जिन्होंने देश सेवा को अपना धर्म बना लिया है। और उनकी देश सेवा ये है की वो फेसबुक जैसी वेबसाइटों पर किसी दिवंगत हिन्दू महापुरुष की जन्मतिथि या पुण्यतिथि याद दिलाते हैं। बाकी, भारत की महानता के बाद भी उनको पढ़ने लिखने के लिए दूसरे देशों में जाना पड़ता है। और वहां उनके सामने अगर कोई भारत या हिन्दुओं की बेईज्ज़ती कर दे तो उनके मुंह से चूं भी नहीं निकलती। आप सोचते होंगे  क्यों? क्योंकि कायरता इनकी मीरास है। इनका खानदानी गुण। कभी आपने सोचा है कि इतने महान आविष्कारों और इतने महान दर्शन के बावजूद हम सदियों गुलाम क्यों रहे? कहीं इसके पीछे कायरता ही तो नहीं थी?


आज भी जब हम लोगों में राष्ट्रवाद जाग उठता है तो वो एक नापा तोला हुआ राष्ट्रवाद होता है। हम कुछ जातियों, नस्लों, देशों की गुलामी करने से नहीं हिचकते। किसी भी पश्चिमी देश के व्यक्ति की गुलामी में हमारे राष्ट्रवाद को कोई नुक्सान नहीं है। ये देखना है तो दिल्ली के किसी भी बाज़ार में चले जाइये और भारत को विदेशियों के सामने सामान बेचते देख लीजिये। आपको ये समझने में दिक्कत नहीं होगी कि सामान बेच रहे हैं या भीख मांग रहे हैं। ये आपको अपने से पिछड़े देशों में भी देखने को नहीं मिलेगा। अगर एक विदेशी दिख गया तो कोई भी बच्चा उसके पास जाके बोलता मिल जाएगा “नो मामा, नो पापा, नो चपाती”। लेकिन ये देख के हमारे राष्ट्रवादियों का खून नहीं खौलता। सब ने इसको अपनी संस्कृति का अंग मान लिया है। हमें भीख मांगते बच्चे दिखाई देते हैं लेकिन पुलिस को नहीं दिखाई देते। हमें पता है कि कई गिरोह लोगों को अपाहिज बना कर भीख मंगवाते हैं लेकिन पुलिस को नहीं पता है, प्रशासन को नहीं पता है। कभी सोचा है क्यों नहीं पता है? हमारी आँखें हैं तो क्या उनकी नहीं हैं? हैं। और उन्हें पता भी है। लेकिन उन्हें फर्क नहीं पड़ता। भीख माँगना कोई बड़ी बात नहीं, फिर चाहे अंधे बच्चे ही क्यों न मांगें। जगतगुरु भारत का दिल से निकला हुआ नारा है “भिक्षाम देहि”।

और लोगों की मूर्खता का एहसास उन्हें तब भी नहीं होता जब सब मिल कर कहते हैं “भारत माता की जय” और अचानक उसी नारे के बीच से एक आवाज़ आती है “हमको आरक्षण चाहिए”। अब बाकी जिनको नहीं मिलता आरक्षण, वो चमत्कृत होकर देखते हैं “ये कौन बोला”। देख के दंग रह जाते हैं की टोयोटा फोर्चूनर पर चढ़े हुए महाबली  बोले। उनको आरक्षण चाहिए। पढ़ा लिखा जाता नहीं। ज़मीन बेचने, दारु पीने से फुर्सत मिले तो पढ़ें, लेकिन फुर्सत मिल ही नहीं पाती। अब बाकी सब सकते में हैं। शॉक लग गया है इनको। अब तक तो कह रहे थे कि सारे हिन्दू एक हैं, अब कुछ को आरक्षण चाहिए और मिल भी जाएगा। बस उनको थोड़ी मेहनत करके खुद को पिछड़ा हुआ साबित करना है। और हम “भारत माता की जय” बोलते रह गए, हमारे मन में ख़याल ही  नहीं आया कि मौका देख के खुद को पिछड़ा साबित कर दें। और सारी दोस्ती पानी में बह गयी। अब हम कैसे कहें कि हम सब एक हैं? नहीं कह सकते। क्योंकि एक हैं नहीं, हो सकते भी नहीं। होते तो हज़ार साल तक गुलाम नहीं रहते। खैर, ये सब बकवास बाद में कर लेंगे। फिलहाल तो कोई जुगाड़ लगाते हैं और खुद को पिछड़ा साबित कर डालते हैं। आरक्षण तो मिल जाएगा। बाद में कलेक्टर बन के घूस लेंगे और भ्रष्टाचार की बुराई करेंगे। भारत माता की जय। जब तक सूरज चाँद रहेगा, भारत पिछड़ों का देश रहेगा। आरक्षित देश।  

- मधुवन ऋषिराज

Monday, January 11, 2016

गीता और रामायण: एक ग़लत तुलना

ज़्यादातर धार्मिक विषयों पर कुछ भी कहना बहुत से अज्ञात तत्वों को चुनौती देना है। इसलिए कोई भी जल्दी इन विषयों पर बात नहीं करना चाहता। मैं भी नहीं। लेकिन कभी कभी आप अपनी सभ्यता और संस्कृति से प्यार होने की वजह से इन विषयों पर बोल पड़ते हैं और फिर पीछे जाने का रास्ता नहीं रह जाता फिर चाहे जो आपने कहा हो वो सच हो या एक सोचा समझा निष्कर्ष जिसपर आप पहुंचे हों। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मैं अपने कुछ विद्यार्थी मित्रों से बात करते समय भावावेश में कह गया कि रामायण को एक धर्मग्रन्थ नहीं मानना चाहिए और उसी बातचीत में मैंने कुछ उदाहरण भग्वद गीता से निकाल के दे डाले। उस वक़्त तो कुछ नहीं हुआ। मगर उनमे से एक मित्र ने दूसरे दिन  मुझसे पूछा कि आपने ऐसा कहा और आपके ऐसा कहने का क्या आधार हो सकता है। एक तरफ तो आप रामायण को धर्म ग्रन्थ मानने से इनकार कर रहे हैं और दूसरी तरफ भग्वद गीता के उदाहरण दे रहे हैं। तो फिर मुझे अपने कहे का आधार सामने लाना ही था जिसे उनसे कहने की बजाय मैंने यहाँ लिखना बेहतर समझा ताकि अगर भविष्य में कोई फिर से वही प्रश्न करे तो मुझे दुबारा उतनी ही मेहनत करके उसका जवाब न देना पड़े और मैं सीधा अपनी इस पोस्ट का लिंक उसे दे दूँ।

सबसे पहले तो अगर हम रामायण को देखें तो वो कुछ लोगों की कहानी कहती है। इससे मतलब नहीं है कि किन लोगों की। इससे भी मतलब नहीं है कि ये कहानी ऐतिहासिक रूप से सच्ची है या नहीं। मतलब इससे है कि रामायण एक कहानी है और एक सीधा शैक्षिक ग्रन्थ नहीं। जो लोग आज के ज़माने की किताबें पढ़ते हैं वो समझ सकते हैं कि रामायण या तो एक novel है या एक non-fiction किताब (मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता कि रामायण के ऐतिहासिक होने के क्या प्रमाण हैं), लेकिन वो एक self help की किताब नहीं है। यानी वो एक सीधी शिक्षा की किताब नहीं है। वहीं अगर आप भग्वद गीता को देखें तो उसमे कोई कहानी नहीं है। वो एक शैक्षिक ग्रन्थ है। एक self help की किताब है। भगवद गीता अपने आप में कोई कहानी नहीं सुनाती। इसलिए भग्वद गीता की रामायण से कोई तुलना नहीं की जा सकती। हाँ, गीता को एक दूसरे ग्रन्थ का हिस्सा माना जा सकता है, महाभारत का, जो रामायण की तरह ही एक कहानी है। महाभारत को कहीं भी उतनी इज्ज़त की दृष्टि से नहीं देखा जाता जितनी ऊंची दृष्टि से रामायण को। आपने कभी सुबह उठ के लोगों को महाभारत का पाठ करते नहीं देखा होगा, लेकिन राम चरित मानस (रामायण का एक रूप) का पाठ या गीता का पाठ करते बहुत लोग मिल जायेंगे। तो उस हिसाब से देखा जाए तो जब आप गीता पढ़ रहे हैं तो आपको हर लाइन, हर श्लोक एक शिक्षा, एक सलाह दे रहा है, जबकि जब आप रामायण पढ़ रहे हैं तो वो आपको एक कहानी सुना रही है। हालांकि बिना समझे दोनों को ही पढना व्यर्थ है।

दूसरी बात, रामायण के दो रूप हैं, वाल्मीकि रामायण और तुलसी दास की लिखी हुई राम चरित मानस। दोनों में ही राम, जो इस कहानी के हीरो हैं, ने जो भी किया है (जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे) को किसी भी दार्शनिक रूप से समझाया नहीं है। दरअसल राम के सही और गलत करने के पीछे कोई भी गहरा दर्शन छुपा हुआ नहीं है। अब अगर हम गीता को देखें तो उसको शायद ही कोई वेद व्यास की रचना मानता हो। भग्वद गीता एक दर्शन का पर्वत है जिसपर कृष्ण का चरित्र खड़ा है। कृष्ण ने जो भी सही गलत किया है, उसको आप भग्वद गीता की कसौटी पर रख कर परख सकते हैं। कृष्ण अर्जुन को जो शिक्षा देते हैं गीता के माध्यम से वो सभी युगों में सभी लोगों के लिए प्रासंगिक है। राम के कृत्यों को आपको हमेशा दूसरे ग्रंथों के आधार पर तोलना होगा।

अब जहां तक रामायण को सच की झूठ पर जीत की कहानी माना जाता है उस बात का आधार भी कोई ठोस नहीं है। जैसे रावण के चरित्र को लीजिये। शिवभक्त रावण जिसने कुछ भी गलत नहीं किया, उसकी बहन राम को देख के आकर्षित होती है और विवाह का प्रस्ताव देती है। राम उससे कहते हैं “मैं तो विवाहित हूँ, मेरे भाई लक्ष्मण से पूछ लो।”
शूर्पनखा उनकी बात मानके लक्ष्मण से पूछने जाती है, और लक्ष्मण ढंग से मना करने के बजाय उसके नाक कान काट लेते हैं। पहला प्रश्न: क्या राम को पता नहीं था की उनके भाई लक्ष्मण भी शादीशुदा हैं? अगर हाँ तो उनका जवाब दुष्टता से भरा हुआ है। दूसरा प्रश्न: क्या राम को पता नहीं था उनका भाई मानसिक रूप से विक्षिप्त है और बात करने पर नाक कान काटने लगता है? तीसरा प्रश्न: लक्ष्मण ने जो तालिबान की तरह एक महिला के नाक कान काट लिए उनको महानता का प्रतीक कैसे माना जा सकता है? चलिए, इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढना अपनी जान पर खेलना है, लोग आपको धर्मद्रोही कह देंगे। अब आप ज़रा कल्पना कीजिये कि जिसके नाक कान काटे गए वो आपकी बहन है। कैसा लगा? रावण को वैसा ही लगा था। तो परम प्रतापी शिवभक्त रावण ने राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया। खुद रामायण कहती है की रावण ने सीता के अपहरण के बाद उनको पूरी इज्ज़त के साथ रखा और हाथ भी नहीं लगाया। अगर आप अपना दिमाग खोलके रामायण पढ़ें तो आपके मन में रावण के प्रति ऐसी इज्ज़त उठेगी जो पंडित उठने नहीं देंगे। और अंत में राम जाकर उस रावण को मार डालते हैं। इसे किस तरह बुराई पर अच्छाई की जीत माना जा सकता है? और फिर जिस पत्नी को वापस लाने के लिए रावण को मार डाला था उसे एक धोबी के कुछ कह देने पर घर से निकाल फेंकते हैं। मैं तो ऐसे व्यक्ति को मर्यादापुरुषोत्तम नहीं मान सकता, आप जो चाहें मान सकते हैं।

अब कृष्ण का चरित्र उठाइये। उन्होंने भी बहुत कुछ ऐसा किया जो साफ़ तौर पर भला नहीं कहा जा सकता, जैसे धोखे से सुयोधन को मरवा देना। लेकिन कृष्ण ने जो भी किया उसको वो दार्शनिक रूप से सही साबित करते हैं। भग्वद गीता वो सतम्भ है जिसपर कृष्ण का चरित्र खड़ा है। अगर आप कृष्ण को इश्वर न भी मानें तो भी वो आम आदमी नहीं प्रतीत होते। वो हर स्थिति में जानते हैं कि क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। वैसे हमारी चर्चा का विषय रामायण और गीता की तुलना है, राम और कृष्ण की नहीं। और रामायण से आप ज्यादा कुछ नहीं सीखते। गीता से आप हर कदम पर सीखते हैं। दरअसल सनातन धर्मियों का पतन होने के बाद वो मूर्तिपूजक हो गए और राम और कृष्ण की मूर्तियाँ बना कर उनकी पूजा करने लगे, लेकिन अगर आप मूर्ती पूजा और राम चरित मानस का रोज़ का रटना निकाल दें तो रामायण के साथ ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता। भग्वद गीता जो कि खुद कहीं भी मूर्तिपूजा की सलाह नहीं देती, कर्म को श्रेष्ठ बताती है, से आप हर कदम पर कुछ नया सीख सकते हैं अगर आप उसको समझते हुए पढ़ें तो।

मुझे पता है कि कई लोग, बल्कि ज़्यादातर लोग न सिर्फ मुझसे असहमत ही होंगे बल्कि इसको पढने के बाद गुस्से में लाल पीले होने लगेंगे। लेकिन मैंने जो भी कहा है वो बहुत सोचने के बाद निकाला हुआ एक निष्कर्ष है और अपनी संस्कृति, सभ्यता के प्रति मेरे प्रेम पर आधारित है जिसका पतन देख कर मुझे वैसा ही लगता है जैसा अपने परिवार को बर्बाद होता देख कर किसी को लगेगा।

- मधुवन ऋषिराज

Monday, December 28, 2015

आम आदमी ट्रांसपोर्ट सेवा

साल २०१६ आ चुका है। भारत अब भी जहां था वहीं है। खैर, भारत को छोड़ दीजिये क्योंकि जैसा कि माना जाता है, शहरों से बाहर निकलने पर भारत एक अन्धकार मात्र है, तो अन्धकार के बारे में बात क्या करना? उजाले के बारे में बात करते हैं। दिल्ली के बारे में बात करते हैं।

अभी हाल ही में जब बिहार में चुनाव हुए थे और लालू प्रसाद यादव का गुट जीत गया था तो यहाँ उजाले में बैठे लोगों ने कई घोषणाएं कर डालीं थीं इस फैसले के बारे में। यहाँ के महान नेता अरविन्द केजरीवाल के समर्थक, जिन्होंने न कभी बिहार नामक अन्धकार देखा था न केजरीवाल से पहले कभी राजनीती में रस लिया था, बड़े ही खुश हुए थे की भाजपा हार गयी। ये जो खुश हुए थे इन्होने भी राष्ट्रीय चुनावों में भाजपा को ही वोट दिया था क्योंकि और कोई विकल्प ही नहीं था और कांग्रेस को वोट देने का मतलब ये भी जानते थे। लेकिन दिल्ली में ये केजरीवाल का समर्थन करते हैं क्योंकि ड्रामा किसको अच्छा नहीं लगता। आप ही ये बताइए कि अगर आपको एक ऐसी फिल्म दिखाई जाए जिसमे शुरू से अंत तक बस शांति ही शांति हो और दूसरी ऐसी दिखाई जाए जिसमे हर तरह का मसाला हो तो आप कौन सी फिल्म पसंद करेंगे? ज़्यादातर भारतीय ड्रामे वाली फिल्म पसंद करेंगे और यही एक मात्र कारण है की बॉलीवुड अब तक जिंदा है। तो एक तरह से देखा जाए तो केजरीवाल दिल्ली के बॉलीवुड हैं। और बॉलीवुड को पसंद करने वाले केजरीवाल के भी प्रशंसक हैं।

केजरीवाल का जब प्रादुर्भाव हुआ था, यानी जब वो प्रकट हुए थे, तो लगभग सारे लोग उनके फैन हो गए थे एक आध को छोड़ कर। मैं आज बड़ा ही गर्व महसूस करता हूँ कि मैं उन एक आध में से था। मेरे केजरीवाल के प्रेम में नहीं पड़ने का कारण था कि मैं कभी भी बॉलीवुड का फैन नहीं रहा। दरअसल बात ये थी कि मैं नेताओं के मामले में थोड़े पुराने खयालात का हूँ। नेता में एक तेज होना चाहिए, एक करिश्मा होना चाहिए, एक सोच होनी चाहिए। नेता आम आदमी से हट के होना चाहिए क्योंकि आम आदमी सही नहीं है। आम आदमी हर वो कारण है जिसकी वजह से हमारा देश हर समय शर्मिंदा होता रहता है। आम आदमी वो है जो मेट्रो में बुजुर्गों को धक्का देके घुसता है। आम आदमी वो है जो महिलाओं की सीट पर जा बैठता है। आम आदमी दहेज़ देता लेता है। आम आदमी बलात्कार करके महिलाओं पर छोटे कपडे पहनने का आरोप लगा देता है। आम आदमी में अगर आम औरत को शामिल कर लें तो आम औरत बुजुर्गों की सीट पर जा के जम जाती है। आम औरत बलात्कार के झूठे केस भी कर देती है। आम औरत दहेज़ के झूठे केस भी करती है। तो ये वजह है कि मैं कभी भी आम आदमी को इज्ज़त की नज़र से नहीं देख पाया। केजरीवाल इसी आम आदमी की नुमाइंदगी करते हुए आए थे। मैं उनके साथ खड़ा हो ही नहीं सकता था। तो खैर बहुत लोग खड़े हुए क्योंकि उनकी एक नेता से उम्मीद ये नहीं होती कि नेता उनको ऊपर उठाए बल्कि ये होती है कि नेता उनकी नीचता की नुमाइंदगी करे, उनकी गंदगी को साफ़ न करे बल्कि उस गंदगी को represent करे। तो ये लोग यहाँ उजाले में बैठ कर बिहारी अँधेरे पर बातें कर रहे थे, लालू की जीत का जश्न मन रहे थे, और इनके नुमाइंदे केजरीवाल लालू से गले तक मिल आए। ये एक और खासियत है केजरीवाल साहब की। उन्होंने दिल्ली और हरयाणा में पैर जमाने के लिए खाप से हाथ मिला लिया था। खाप वही पंचायत है जो कभी अपने फैसलों में किसी महिला का बलात्कार करने का आदेश सुना डालती है तो कभी सगोत्र या अंतरजातीय विवाह होने पर अपने ही बच्चों को मार डालने का। खैर, इसके लिए केजरीवाल को माफ़ किया जा सकता है क्योंकि वो सिर्फ वही कर रहे थे जो उनके पीछे चलने वाला आम आदमी हर रोज़ करता है: शक्ति पूजा।

हर बात के बावजूद मैं ये मान सकता हूँ कि केजरीवाल एक इमानदार इंसान हैं। लेकिन नेत्रित्व अर्थात leadership के लिए सिर्फ इमानदारी से काम नहीं चलता। उसके लिए आपको एक सोच चाहिए, एक तरीका चाहिए, एक स्ट्रेटेजी चहिये। इन तीनो में से कुछ भी हमारे भाईसाहब के पास नहीं है। अब जैसे odd-even फार्मूला को ले लें। केजरीवाल जो हमेशा करते पहले हैं, सोचते बाद में (या शायद कभी नहीं) ने ये odd-even नंबर वाले नियम का हुक्म तो दे डाला, लेकिन वो भूल गए की उनके शहर में ऑटो रिक्शा वाले मीटर से चलने को तैयार नहीं। दिल्ली पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर धब्बा है अगर और जगहों से इसकी तुलना की जाए। विदेश जाने की ज़रुरत नहीं, अपने ही देश में मुंबई में हज़ार अलग अलग ऑटो वाले भी मीटर से चलें तो एक जैसा रेट आएगा और वहां आपको ऑटो वालों से विनती नहीं करनी पड़ती कि मीटर से चलें। दिल्ली की बसों में कंडक्टर दुर्व्यवहार करते हैं और यात्री टिकट की चोरी। मेट्रो में जो धक्कामुक्की होती है वो तो किसी से छुपी है ही नहीं। लेकिन हमारे आम लीडर को ये नहीं दिखता। क्यों नहीं? आखें शायद नहीं हैं उनकी। या कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में नहीं चले? और गाड़ियाँ नंबर के हिसाब से कण्ट्रोल करने से क्या होगा? होगा ये कि जो अमीर आदमी दस गाड़ियाँ रख सकता है या रखे हुए है उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और जो मध्यमवर्गीय आदमी एक मारुती आल्टो में पूरे परिवार को लेके चलता है वो हमारी भ्रष्ट पुलिस के पंजे में फंस जाएगा। जो उस पुलिस वाले के भतीजे का साला होगा उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। हाँ पुलिस की आमदनी में कुछ इजाफा ज़रूर होगा और ये केजरीवाल की डिपार्टमेंट को सबसे बड़ी मदद होगी, जिससे कि जब अगले धरने पर उनको पुलिस पकड़ के घसीटे तो थोड़ा धीरे घसीटे। खैर, हम तो कभी आम आदमी रहे नहीं, सो हमारा कुछ नहीं हो सकता। भगवान् दिल्ली को दुष्ट नज़रों से बचाए और बिहार जैसे अँधेरे में नहीं धकेले। आम भगवान् ही सही।

-मधुवन ऋषिराज